बेरोजगारों ने खोला सरकार के खिलाफ मोर्चा: कर्मचारी चयन आयोग मुख्यालय का किया घेराव, उपेन बोले- जल्द पूरी हो लंबित भर्ती प्रक्रिया
राजस्थान में लंबित भर्ती परीक्षाओं को लेकर एक बार फिर बेरोजगारों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। शुक्रवार को प्रदेशभर से जयपुर में जुटे बेरोजगारों ने कर्मचारी चयन आयोग का फैलता है और आयोग घेराव किया। इस दौरान बेरोजगारों ने बोर्ड अध्यक्ष हरिप्रसाद शर्मा को ज्ञापन सौंप लंबित भर्ती प्रक्रिया निर्धारित वक्त पर पूरी करने की मांग की। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा नहीं किया गया, तो आने वाले वक्त में प्रदेशभर में आंदोलन किया जाएगा।
राजस्थान बेरोजगार एकीकृत महासंघ के प्रदेश अध्यक्ष उपेन ने कहा कि शिक्षक भर्ती परीक्षा, सूचना सहायक, पशुधन, कंप्यूटर अनुदेशक, VDO, जैसी तमाम भर्ती परीक्षाओं की विसंगतियों को लेकर कर्मचारी चयन आयोग का घेराव किया है। इसके साथ ही हमने बोर्ड अध्यक्ष को बेरोजगारों का मांग पत्र सौंपा गया है। जिसमें शिक्षक भर्ती परीक्षाबार सूचना सहायक भर्ती की विज्ञप्ति जल्द जारी करने के साथ ही लेवल-1 और लेवल-2 में पद बढ़ाने की मांग की गई है। वहीं कंप्यूटर अनुदेशक, पशुधन, ग्रामीण विकास अधिकारी जैसी लंबित भर्ती परीक्षाओं का फाइनल रिजल्ट जारी करने के साथ ही अभ्यर्थियों को पोस्टिंग देने की मांग की है।
जिनमें से शिक्षक भर्ती परीक्षा की विज्ञप्ति को लेकर सहमति भी बन गई है। हमें उम्मीद है कि जल्द ही भर्ती विज्ञप्ति जारी की जाएगी। वहीं दूसरी लंबित परीक्षाओं को लेकर भी जल्द ही शिक्षा विभाग के अधिकारियों के साथ हमारी बैठक होगी। अगर बैठक में हमारी मांगों को पूरा नहीं किया गया। तो आने वाले वक्त में राजस्थान के विरोध बार अपने हक के लिए सड़क से लेकर सदन तक विरोध करेंगे।
परिसीमन आयोग क्या होता है | Delimitation Commission In Hindi
Delimitation Commission In Hindi परिसीमन आयोग क्या होता है: पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा खीचने के उद्देश्य से राष्ट्रपति एक स्वतंत्र संस्था का गठन करते हैं, जिसे परिसीमन आयोग कहा जाता हैं. यह चुनाव आयोग के साथ मिलकर कार्य करता हैं. परिसीमन आयोग, परिसीमन के वाद, प्रत्येक क्षेत्र की सरंचना को देखकर अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए क्षेत्रों को आरक्षित करता हैं.
Delimitation Commission In Hindi परिसीमन आयोग क्या होता है
परिसीमन आयोग– पूरे देश में निर्वाचित क्षेत्रों की सीमा खीचने के उद्देश्य से राष्ट्रपति द्वारा एक स्वतंत्र संस्था का गठन किया जाता हैं जिसे परिसीमन आयोग कहते हैं.
परिसीमन आयोग के कार्य– परिसीमन आयोग के दो प्रमुख कार्य हैं.
- निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं निर्धारित करना- परिसीमन आयोग आम निर्वाचन से पहले पूरे देश में निर्वाचन के क्षेत्रों की सीमाएं निर्धारित करता हैं. इस कार्य को वह चुनाव आयोग के साथ मिलकर करता हैं.
- आरक्षित किये जाने वाले निर्वाचन क्षेत्रों का फैलता है और आयोग निर्धारण- प्रत्येक राज्य में आरक्षण के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का एक कोटा होता हैं जो उस राज्य में अनुसूचित जाति या जनजाति की संख्या के अनुपात में होता हैं. परिसीमन के बाद परिसीमन आयोग प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जनसंख्या की संरचना को देखता हैं जिन निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या सबसे ज्यादा होती हैं उसे उनके लिए आरक्षित कर दिया जाता हैं.
परिसीमन का उद्देश्य
अनुसूचित जातियों के मामले में परिसीमन आयोग दो बातों पर ध्यान देता हैं. आयोग उन निर्वाचन क्षेत्रों को चुनता है जिनमें अनुसूचित जातियों का अनुपात ज्यादा होती हैं लेकिन वह इन निर्वाचन क्षेत्रों को राज्य के विभिन्न भागों में फैला भी देता हैं फैलता है और आयोग ऐसा इसलिए कि अनुसूचित जातियों को पूरे देश में बिखराव समरूप हैं. जब कभी भी परिसीमन का काम होता हैं इन आरक्षित क्षेत्रों में कुछ परिवर्तन कर दिया जाता हैं.
भारतीय लोकतंत्र में राज्यसभा, लोकसभा तथा विधानसभा की सीटों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर किया जाता हैं. हरेक राज्य की जनगणना के आकंड़ो के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र विभक्त हो जिससे केंद्र एवं राज्य के बिच निर्वाचन सम्बंधी विवादों को कम से कम किया जा सके साथ ही विभिन्न जातियों व समुदायों को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया जा सके, यह कार्य राष्ट्रीय परिसीमन आयोग करता हैं.
पहला परिसीमन आयोग
जब भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ तो उसमें लोकसभा के कुल क्षेत्रों के सम्बन्ध में यह कहा गया कि देश भर में 500 तक ही लोकसभा सदस्य होंगे. वर्ष 1952 में संसदीय / विधानसभा क्षेत्रों के व्यवहार्य क्षेत्रीय विभाजन का स्वतंत्र प्रभार एक नई संस्था परिसीमन आयोग को दिया गया. इसके बाद 1952,1963,1973 और 2002 में फिर से आयोग का गठन किया गया. जिन्होंने नवीनतम जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन किया गया था.
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परिसीमन की प्रक्रिया
परिसीमन की प्रक्रिया में किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं होता है बल्कि आबादी के आधार पर उसकी भौगोलिक सीमाओं में बदलाव किये जाते हैं जैसे किसी बड़े दो निर्वाचन क्षेत्रों के थोड़े थोड़े हिस्से को कम करके नया निर्वाचन क्षेत्र बनाना. इसमें अंतिम एवं नवीनतम जनगणना के आंकड़े आधार बनाएं जाते हैं.
किसी भी राज्य, जिले या निर्वाचन क्षेत्र में इस तरह के बदलावों के लिए परिसीमन आयोग द्वारा एक आधार पत्र तैयार किया जाता है तथा इसे सभी सदस्यों के सम्मुख रखा जाता हैं. प्रस्ताव के विषय में अंतिम निर्णय केवल आयोग ही करता हैं. इस आधार पत्र पर आयोग के सदस्यों की सकारात्मक, नकारात्मक प्रतिक्रियाओं और सुझावों को सम्बन्धित राज्य के राजपत्र और दो न्यूज पेपर में प्रकाशित करवाया जाता हैं.
साथ ही राज्य या क्षेत्र के लोगों को इस प्रस्ताव पर सुझाव और आपत्तियां भेजने को कहा जाता हैं. इन जन सुझावों पर चर्चा के लिए एक जन सुनवाई का आयोजन किया जाता हैं. आयोग इन सुझावों पर मंथन के बाद अपना अंतिम आदेश जारी करता हैं.
जम्मू-कश्मीर में परिसीमन Jammu Kashmir Delimitation
भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के साथ पूर्वोत्तर के चार राज्यों में परिसीमन की मंजूरी के बाद इन राज्यों के निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनः निर्धारण किये जाने की प्रक्रिया चल रही हैं. जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 के तहत केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर और लद्दाख के विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों में परिसीमन किया जाएगा.
जम्मू कश्मीर की 107 विधानसभा सीट बढ़कर अब 114 हो जाएगी. जम्मू-कश्मीर में अंतिम परिसीमन वर्ष 1995 में हुआ था. पाक अधिकृत कश्मीर हो छोडकर अब जम्मू कश्मीर में 90 निर्वाचन क्षेत्र हो जाएगे इससे पूर्व इनकी संख्या 83 थी. लोकसभा सीट की बात करें तो जम्मू कश्मीर से 5 एवं लद्दाख से एक लोकसभा सीट हैं.
कैसे काम करता है परिसीमन आयोग
मुख्य चुनाव आयुक्त परिसीमन आयोग के अध्यक्ष होते हैं इन्ही के द्वारा राज्यों के निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण किया जाता हैं. आयोग जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों को आरक्षित करने का काम भी करता हैं. संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार दस वर्षीय जनगणना के पश्चात परिसीमन किया जाना हैं.
इसी आधार पर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन साल 1971 में तथा विधानसभाओं का 2001 में किया गया. वर्ष 2026 में सभी राज्यों में पुनः परिसीमन की प्रक्रिया को दोहराया जाना हैं. परिसीमन की प्रक्रिया में चुनाव आयोग के कर्मचारियों की भूमिका सबसे बढ़कर होती हैं उनके द्वारा जिले, तहसील और गाँव के जनगणना के आंकड़ों के आधार पर सीमांकन किया जाता हैं, इसके अभ्यास में करीब पांच वर्षों का समय लग जाता हैं.
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Law and Order: जानिए, कौन होते हैं पुलिस कमिश्नर, SSP से कैसे हैं अलग?
हमारे देश के जिन बड़े जिलों और महानगरों में पुलिस कमिश्नरी प्रणाली लागू है. वहां पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी पुलिस आयुक्त यानी पुलिस कमिश्नर (Police Commissioner) होता है. पुलिस कमिश्नर एक सीनियर आईपीएस (Senior IPS) होता है
परवेज़ सागर
- नई दिल्ली,
- 25 फरवरी 2022,
- (अपडेटेड 25 फरवरी 2022, 8:25 AM IST)
- एसएसपी से अलग होती हैं पुलिस कमिश्नर की शक्तियां
- एसएसपी और पुलिस कमिश्नर पद पर तैनात होते हैं IPS अफसर
- दोनों ही संभालते हैं जिलों की कमान
कानून व्यवस्था (Law and Order) को बनाए रखने में सबसे बड़ा योगदान पुलिस (Police) का है. इसलिए हर राज्य के जिलों में पुलिस विभाग की खास भूमिका होती है. हर जिले का अपना पुलिस विभाग और बल होता है. जिसका सर्वोच्च अधिकारी एसपी (SP) या एसएसपी (SSP) होता है. लेकिन देश के कुछ बड़े जिलों और महानगरों में एसएसपी के स्थान पर पुलिस कमिश्नर (Police Commissioner) तैनात होते हैं. ऐसे में कई लोग जानना चाहते हैं कि पुलिस के इन दोनों पदों में अंतर क्या है, पुलिस कमिश्नर जिले के एसएसपी से कैसे अलग होते हैं? तो आगे हम यही आपको बताने जा रहे हैं.
कौन होते हैं पुलिस आयुक्त (Police Commissioner)
हमारे देश के जिन बड़े जिलों और महानगरों में पुलिस कमिश्नरी प्रणाली (Police Commissionerate System) लागू है. वहां पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी पुलिस आयुक्त यानी पुलिस कमिश्नर (Police Commissioner) होता है. पुलिस कमिश्नर एक सीनियर आईपीएस (Senior IPS) होता है, जो ADG रैंक का अधिकारी होता है. वह सीधे राज्य के पुलिस महानिदेशक या गृह विभाग को रिपोर्ट करता है. पुलिस कमिश्नर के अधीन IG रैंक का अधिकारी संयुक्त पुलिस आयुक्त (Joint Commissioner of Police) होता है. जबकि DIG रैंक के अफसर अपर पुलिस आयुक्त (Additional Commissioner of Police) बनाए जाते हैं. जिनकी तैनाती क्राइम और लॉ एंड ऑर्डर के हिसाब से की जाती है.
पुलिस कमिश्नर के अधीन आने वाले जनपद को अलग-अलग जोन में बांट दिया जाता है. फिर हर एक जोन में SSP/SP रैंक का अधिकारी पुलिस उपायुक्त (Deputy Commissioner of Police) होता है. उसके अधीन अपर पुलिस उपायुक्त (Additional Deputy Commissioner of Police) बनाए जाते हैं, जो ASP रैंक के अधिकारी होते हैं. जबकि जिले में सर्किल और थाने की व्यवस्था सामान्य पुलिस प्रणाली की तरह ही होती है. जिसमें क्षेत्राधिकारी का पद नाम सीओ (Circle officer) के जगह सहायक पुलिस आयुक्त (Assistant Commissioner of Police) होता है. ACP के अधीन थाने के एसएचओ (SHO) आते हैं.
पुलिस कमिश्नर के खास अधिकार
पुलिस कमिश्नर के पास सीआरपीसी (CrPC) के वो सारे अधिकार होते हैं, जो सामान्य पुलिस व्यवस्था वाले जिलों में डीएम (DM) के पास होते हैं. यही वजह है कि पुलिस कमिश्नर को किसी भी मामले में जिले के डीएम से आदेश लेने की ज़रूरत नहीं होती. पुलिसकर्मियों तबादले, लाठी चार्ज या फायरिंग के आदेश भी खुद पुलिस कमिश्नर दे सकते हैं.
पुलिस कमिश्नरी प्रणाली वाले जिले में शस्त्र लाइसेंस देने, बार लाइसेंस जारी करने और होटलों के लाइसेंस बनाने का अधिकार भी पुलिस कमिश्नर के पास होता है. इसके अलावा धरना प्रदर्शन की इजाजत देना, लाठी चार्ज पर फैसला करना, पुलिस बल की संख्या तय करने का अधिकार भी पुलिस के पास होता है. यहां तक कि भूमि संबंधी विवादों के निस्तारण का अधिकार भी पुलिस कमिश्नर के पास होता है. पुलिस कमिश्नर के पद पर तैनात अफसर प्रमोशन मिलने के बाद सीधे पुलिस महानिदेशक (DGP) के पद पर जा सकते हैं.
कौन होते हैं एसएसपी (SSP)
किसी भी जनपद में पुलिस की कमान वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (Senior Superintendent of Police) या पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) के हाथों में होती है. जो एक आईपीएस (IPS) अफसर होते हैं. उनके अधीन एक या उससे अधिक एडीशनल एसपी (Additional SP) होते हैं. फिर सर्किल के हिसाब से सीओ (Circle officer) यानी डीएसपी (Deputy Superintendent of Police) नियुक्त होते हैं. और बारी आती है थानाध्यक्ष (SO) या प्रभारी निरीक्षक (SHO) की जो थानों के इंचार्ज होते हैं. ये सभी एसएसपी (SSP) या एसपी (SP) के अधीन ही कार्य करते हैं.
एसपी (SP) / एसएसपी (SSP) के पास नहीं होते ये अधिकार
जिले के एसपी या एसएसपी के पास सीआरपीसी के कई अधिकार नहीं होते हैं. उन्हें कई मामलों में जिले के डीएम यानी जिलाधिकारी से आदेश लेने की ज़रूरत पड़ती है. सीआरपीसी (CrPC) डीएम को कानून-व्यवस्था संबंधी कई अधिकार देती है. यही वजह है कि सामान्य पुलिस व्यवस्था में एसएसपी या एसपी को डीएम की अनुमति लेकर कई काम करने पड़ते हैं. यहां तक कि पुलिसकर्मियों के तबादले, लाठी चार्ज या फायरिंग के आदेश में भी उन्हें डीएम से बात करनी पड़ती है. शस्त्र लाइसेंस देने, बार लाइसेंस जारी करने और होटलों के लाइसेंस बनाने का अधिकार एसपी या एसएसपी के पास नहीं होता. ये काम डीएम करते हैं.फैलता है और आयोग
एसपी या एसएसपी के पद पर तैनात अफसर के प्रमोशन का क्रम देखें तो एसएसपी के बाद वो डीआईजी (DIG) बनते हैं. फिर आईजी (IG) और फिर एडीजी (ADG). इसके बाद वे पुलिस महानिदेशक (Director General of police) के पद तक जा सकते हैं.
फैलता है और आयोग
रांची में असहयोग आंदोलन
रांची जिले में असहयोग आंदोलन ने भारत में कहीं और पैटर्न का पालन किया। इस आंदोलन ने लोगों की कल्पना को विशेष रूप से ताना भगतों को पकड़ा और उनमें से बड़ी संख्या में दिसंबर 1 9 22 में कांग्रेस के गया सत्र में भाग लिया, जिसका नेतृत्व देशबंधु चितंजनंजन दास ने किया था। ये ताना भगत स्वतंत्रता आंदोलन के संदेश से गहराई से घर लौट आए। बेयरफुटेड वे अपने हाथों में कांग्रेस झंडे के साथ लंबी दूरी पर ट्रेक करते थे और उन्होंने संदेश को जनता में जनता के पास ले जाया। उन्होंने असहयोग कर्मचारियों द्वारा आयोजित बैठकों में भाग लिया।
5 अक्टूबर, 1 9 26 को, स्थानीय आर्य समाज हॉल में श्री फैलता है और आयोग राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति में रांची में खादी प्रदर्शनी खोली गई थी। ताना भगत भी इसमें भाग लेते थे। यह 1 9 22 में असहयोग आंदोलन को निलंबित करने के बाद महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा था। 1 9 27 में साइमन कमीशन का बहिष्कार कीया था । 4 अप्रैल, 1 9 30 को, रांची के तरुण सिंह (युवा लीग) ने एक आयोजन किया स्थानीय नगरपालिका पार्क में बैठक जिसमें विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों की बड़ी संख्या फैलता है और आयोग में छात्रों ने भाग लिया था। नेताओं ने उन्हें नागरिक अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की।
महात्मा गांधी के आदेश पर लॉन्च किया गया नमक सत्याग्रह, रांची जिले में बड़ी प्रतिक्रिया मिली। 1942 की भारत क्रांति को छोड़ने के बाद राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारी ने हमलों, प्रक्रियाओं, प्रदर्शनों और संचार की लाइनों में व्यवधान को जन्म दिया। जिले ने बाद की घटनाओं में सक्रिय भूमिका निभाई जिसने 1947 में देश की अपील की।
1857 के बाद मुख्य आयोजन
छोटानागपुर के राजनीतिक क्षितिज में फैलता है और आयोग अंग्रेजों का घुसपैठ भी एक महान सामाजिक-आर्थिक क्रांति के साथ सिंक्रनाइज़ किया गया। शुरुआती (मजबूर श्रम) को लागू करने और मध्यस्थों द्वारा किराए पर अवैध वृद्धि के खिलाफ कृषि असंतोष के परिणामस्वरूप सरदार आंदोलन, जिसे सरदार द्वारा प्रदान किए गए उत्तेजना और नेतृत्व के कारण बुलाया गया। 1887 तक आंदोलन बढ़ गया था और कई मुंडा और ओरेन किसानों ने मकान मालिकों को किराए का भुगतान करने से इनकार कर दिया था। सरदार आंदोलन (या लाराई जिसे इसे बुलाया गया था) 1895 में अपनी ऊंचाई पर था जब एक सामाजिक-धार्मिक नेता बिरसा मुंडा नाम पर दिखाई दिए। रांची के सामाजिक इतिहास में उनकी भूमिका का महत्व उन्हें दिए गए बिरसा भगवान के उत्थान से बाहर निकाला जाता है।
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आंदोलन आधा कृषि और आधा धार्मिक था, इसका कृषि अशांति के साथ सीधा संबंध था और यह भी ईसाई विचारों से प्रभावित हुआ। बिरसा मुंडा ईसाई धर्म से एक धर्मत्यागी थे। उनका शिक्षण आंशिक रूप से आध्यात्मिक, आंशिक रूप से क्रांतिकारी था। उन्होंने घोषणा की कि भूमि उन लोगों से संबंधित है जिन्होंने इसे वनों से पुनः प्राप्त किया था, और इसलिए, इसके लिए कोई किराया नहीं दिया फैलता है और आयोग जाना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि वह मसीहा था और उपचार की दिव्य शक्तियों का दावा किया था।
बिरसा के क्रूसेड ने भ्रमित किसानों के सशस्त्र उभरने के बारे में बताया जो जल्दी से दबा दिया गया था। 1900 में जेल में बीरसा की मृत्यु हो गई।
1914 में बिशुनपुर पुलिस थाने के जात्रा ओरायन द्वारा ओरेन्स के बीच एक धार्मिक आंदोलन शुरू किया गया था। टाना भगत आंदोलन, जिसे इसे कहा जाता था, भी कृषि मुद्दों में अपनी उत्पत्ति थी और विशेष रूप से ईसाई धर्मों और पारंपरिक या संसार ओरेन्स के बीच आर्थिक असमानता थी। यात्रा ओरेन और उनके सहयोगियों द्वारा शुरू किए गए गैर-सहयोग आंदोलन जल्द ही पलामू और हजारीबाग तक फैल गए।
जिला ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गणेश चंद्र घोष रांची के मार्गदर्शन में अनुयायी पार्टी के अनुयायी के लिए काम का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। रांची, जिला गांधी और सर एडवर्ड अल्बर्ट गेट, 4 जून को बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर और ओरिसा के बीच एक बैठक का स्थान था और फिर 22 सितंबर 1 9 17 को चंपारण इंडिगो प्लांटर्स के संदर्भ में उस जिले के रायतों के खिलाफ दमनकारी उपायों के संदर्भ में एक बैठक का स्थान था। चंपारण कृषि कानून बाद में 1 9 18 के बिहार और ओरिसा अधिनियम -1 के नाम से पारित हुआ।
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