इतिहास में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सिद्धान्तो का अध्ययन | Original Article Krishan .*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research
भारतीय काव्यशास्त्र/औचित्य सिद्धांत
औचित्य-सिद्धांत के प्रवर्तक का श्रेय क्षेमेन्द्र को दिया जाता है किन्तु वस्तुतः यह इसके प्रवर्तक न होकर व्यवस्थापक हैं। इनसे पूर्व भी भरत, भामह, दण्डी, रूद्रट और आनन्दवर्धन के ग्रन्थों में इस तत्व पर प्रसंगवंश यत्किंचित संकेत मिल जाते हैं। तथापि औचित्य की कल्पना साहित्य-जगत में बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही थी।
- भरत ने नाटकीय प्रसंग में पात्र, प्रकृति, वेश-भूषा, भाषा आदि के औचित्य का विस्तृत प्रतिपादन अपने नाट्यशास्त्र में किया है। इस प्रसंग में भरत का यह श्लोक बडा़ ही सारगर्भित है-
'अदेशजो हि वेशस्तु न शोभां जनयिष्यति। मेखलोरसि बन्धे च हास्यायैव प्रजायते'।।
अर्थात् जिस देश का जो वेश है, जो आभूषण जिस अंग में पहना जाता है उससे भिन्न देश में उसका विधान करने पर वह शोभा नहीं पाता। यदि कोई पात्र करधनी को अपने गले में और हाथ में पहने तो वह उपहास का ही पात्र होगा। करधनी का स्थान है कमर। वहीं पहनने पर होती है उसकी उचित शोभा। अतः अभिनय करते समय वेष आयु के अनुरूप होनी चाहिए।
- भामह का यह कथन भी औचित्य-तत्व की ओर संकेत करता है कि कोई असाधु वस्तु भी आश्रय के सौन्दर्य से अत्यन्त सुन्दर बन जाती है, जैसे- काजल तो स्वभावत: कला होता है, किन्तु सुन्दर स्त्री के नेत्रों में अंजित प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता हो जाने पर उसकी शोभा बढ़ जाती है।
- दण्डी ने देशगत, कालगत आदि विरोध नामक काव्य-दोषों के सम्बन्ध में यह कहा कि कवि के कौशल से ये विरोध दोषत्व छोड़कर गुण भी बन जाते हैं। यनिकि यदि कोई कवि अपने काव्य में इन दोषों को यथावश्यक रूप में औचित्यपूर्वक , जानबूझकर, सन्निविष्ट कर देता है तो वहां ये दोष गुण प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता बन जाते हैं। सम्भवत: इसी प्रकार की अनेक मान्यताओं के आधार पर, आगे चलकर, आनन्दवर्धन ने नित्य और अनित्य दोष की व्यवस्था की थी।
- रूद्रट ने संभवत: सर्वप्रथम 'औचित्य' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है कि काव्य में अनुप्रास-वृत्तियों का प्रयोग औचित्य का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।
- आनन्दवर्धन ने अलंकार, गुण, संघटना प्रबन्ध, रीति तथा रस के औचित्य की काव्य में पूर्ण गरिमा का अवगाहन किया। औचित्य के सर्वमान्य आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। जिन्होंने रसभंग की व्याख्या के अवसर पर यह मान्य प्रतिपादित किया था-
अनौचित्याद् ॠते नान्यद् रसभंगस्य कारणम्। औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषद् परा।।
औचित्य ही रसभंग का प्रधान कारण है। अनुचित वस्तु के सन्निवेश से रस का परिपाक काव्य में उत्पन्न नहीं होता। अतः औचित्य का समावेश ही रस का परम रहस्य है।
- क्षेमेन्द्र अभिनव गुप्त के प्रम शिष्य क्षेमेन्द्र ध्वनिवादी आचार्य थे। जिन्होंने औचित्य को व्यापक काव्य तत्व के रूप विवेचन किया- 'उचितस्य भाव: औचित्यम्' उचित के भाव को औचित्य कहते हैं, अर्थात् काव्य में प्रत्येक काव्य-तत्व का उचित रूप से प्रयोग औचित्य कहलाता है। उनके कथनानुसार काव्य यधपि रससिध्द होता है, किन्तु उसका स्थिर-अनश्वर-जीवित तो औचित्य ही है- औचित्य रससिध्दस्य स्थिर काव्यस्य जीवितम्। क्षेमेन्द्र ने काव्य के विभिन्न अंगों के आधार पर औचित्य के २७ प्रभेद निर्दिष्ट किये जो निम्न तीन वर्गों में विभक्त हो सकते हैं-
१. भाषा- विषयक- पद, वाक्य, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात और काल।
२. काव्यशास्त्र-विषयक- प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार और रस।
३. वर्ण-विषयक- देश, काल, व्रत, तत्व, सत्व, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था, विचार और आशीर्वान।
क्षेमेन्द्र के अनुसार इन सभी अंगों में एकमात्र व्यापक जीवन औचित्य ही है, अर्थात् काव्य में इन सभी काव्य- तत्वों का प्रयोग औचित्य- पूर्ण होना चाहिए। 'काव्यस्यांगेषु च प्राहरौचित्यं व्यापि जीवितम्।। यथा अलंकार और गुण के सम्बन्ध में उनका मन्तव्य है कि जब इनका उचित प्रयोग किया जाएगा तभी ये अलंकार अथवा गुण कहाएंगा, प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता अन्यथा नहीं।
निष्कर्ष अन्त में यह समस्या विचारणीय है कि क्या औचित्य को काव्य की आत्मा मानना संगत है, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और रस क्षेमेन्द्र इनमें से किसी आधार को नहीं अपनाते। यह सभी काव्यांगों को स्वीकार करते हुए केवल उनके औचित्यपूर्ण प्रयोग पर ही बल देने के पक्ष में हैं। अतः औचित्य को काव्य की आत्मा अथवा कोई स्वतन्त्र सिध्दान्त न मानकर इसे सभी काव्य-तत्वों का उत्कर्षक तत्व ही स्वीकार करना चाहिए।
संदर्भ [ सम्पादन ]
१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१४५-१४८
२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--८८
प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता
Year: Apr, 2019
Volume: 16 / Issue: 5
Pages: 904 - 907 (4)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: http://ignited.in/I/a/211065
Published On: Apr, 2019
Article Details
इतिहास में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सिद्धान्तो का अध्ययन | Original Article
Krishan .*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research
बौद्ध दर्शन के ‘ क्षणभंगवाद ‘ सिद्धान्त की व्याख्या | Transcendentalism doctrine of buddhist philosophy |
बौद्ध दर्शन के ‘क्षणभंगवाद’ सिद्धान्त की व्याख्या | Transcendentalism Doctrine Of Buddhist Philosophy |
नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है बौद्ध दर्शन के ‘क्षणभंगवाद’ सिद्धान्त की व्याख्या | Transcendentalism doctrine of buddhist philosophy | उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |
प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार प्रत्येक घटना का कोई कारण अवश्य होता है और कारण के नष्ट होने पर कार्य का नाश होता है। इससे ‘अनित्यवाद’ या‘क्षणिकवाद’ का उदय होता है। इसके अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु चंचल, परिवर्तनशील एवं क्षणिक है। सार्वभौम परिवर्तन प्रकृति का नियम है। धम्मपद में ठीक ही कहा गया है-
“जो नित्य तथा स्थायी मालूम पड़ता है, वह भी नाशवान है। जो महान मालूम पड़ता है, उसका भी पतन होता है।”
प्रत्येक वस्तु (जड़ या चेतन दोनों) नश्वर है। यही अनित्यवाद है। बुद्ध के अनुयायियों ने अनित्यवाद को क्षणिकवाद में बदल दिया। क्षणिकवाद के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु प्रत्येक क्षण है। वस्तु के उत्पन्न होने और नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता। प्रत्येक वस्तु अनित्य होने के साथ ही साथ क्षणिक भी है। नदी की धारा एक क्षण के बाद दूसरी धारा बन जाती है। इसी प्रकार विश्व की वस्तुएँ क्षण-क्षण बदलती रहती हैं।
अनित्यवाद, शाश्वत्वाद और उच्छेदवाद के मध्य का मार्ग अपनाता है। शाश्वत्वाद के अनुसार, ‘प्रत्येक वस्तु सत् है’ और उच्छेद्वाद के अनुसार, “प्रत्येक वस्तु असत् है।” दोनों ही सिद्धान्त एकांगी व अपूर्ण हैं। अनित्यवाद इन दोनों के बीच का सिद्धान्त है। इसके अनुसार कोई भी वस्तु न तो पूर्णतः नित्य है और न पूरी तरह नश्वर है। प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। इस प्रकार अनित्यवाद सत् और असत् के बीच का मार्ग अपनाता है।
पाश्चात्य विचारक बर्गसौं ने भी बुद्ध के इस कथन का समर्थन किया है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है इसके अनुसार परमतत्त्व ‘एलान-वोटल है जो सतत् परिवर्तनशील रहता है। बौद्ध क्षणिकवाद का समर्थन अर्थ क्रिया कारित्त्व नामक तर्क के आधार पर करते हैं। इसके अनुसार किसी वस्तु की सत्ता तभी तक है, जब तक उसमें कार्य करने की शक्ति हो।
जो वस्तु कार्य करने में असमर्थ हो उसकी सत्ता नहीं मानी जा सकती। एक वस्तु एक समय में एक कार्य उत्पन्न करती है दूसरे समय में दूसरे कार्य को उत्पन्न करते समय प्रथम अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। इस तथ्य को बीज के उदाहरण से समझा जा सकता है-बीज जमीन में डालने से अंकुर एवं पौधे के रूप में विकसित होता है और पौधे का हर क्षण विकास होता है। इसी तरह, विश्व को प्रत्येक वस्तु प्रत्येक क्षण परिवर्तित होती रहती है।
हीनयान ने क्षणिक-प्रवाह को स्पष्ट करने के लिए नदी की जलधारा और दीपशिखा के दृष्टान्त दिये हैं। हम उसी जल में दुबारा नहीं नहीं सकते क्योंकि नदी के जिस जल में हमने पहली डुबकी लगाई थी वह तो बहकर आगे चला गया और दूसरी डुबकी दूसरे जल में ही लगेगी।
नदी जल-समूहों का निरन्तर प्रवाह है जिसमें एक जल-समूह बहने के बाद तुरन्त है। किन्तु दूसरा जल-समूह उसका स्थान ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है। इसी प्रकार जलते हुए दीपक को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह वही दीपक जल रहा या एक दीपशिखा जल रही है।
वस्तुतः दीपक कई क्षणिक शिखाओं का निरन्तर प्रवाह है जिसमें एक क्षणिक लौ के जाते ही उसका स्थान तुरन्त दूसरी लौ ले लेती है और यह क्रम दीपक जलने तक निरन्तर चलता रहता है। एक जल-समूह दूसरे जल समूह के ‘समान’ एक ही नहीं है। प्रवाह के तीव्र वेग व निरन्तरता के कारण समानता’ पर ‘एकता’ का आरोप और प्रवाह की ‘अनविच्छिन्नता’ पर नित्यता का आरोप कर दिया जाता है, किन्तु यह आरोप उपचार मात्र है, तथा वस्तुतः प्रान्ति है।
18वीं शती के पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम का विचार इस बौद्धमत से पर्याप्त समानता रखता है। झूम ने भी आत्मा नामक चेतन द्रव्य और बाह्य पदार्थ नामक जड़ द्रव्य का इसी प्रकार खण्डन किया है। उनका कथन है कि हमें प्रत्यक्ष से विज्ञान-धारा और इन्द्रिय सम्वेदन धारा के अतिरिक्त किसी चेतन या जब द्रव्य का अनुभव नहीं होता।
तथाकथित आत्म-द्रव्य और जड़ द्रव्य उन विभिन्न क्षणिक विज्ञानों और इंन्द्रिय सम्वेदनों के पुझ के अतिरिक्त कुछ नहीं है जो अकल्पनीय वेग से मे एक-दूसरे के बाद आते रहते हैं और जिनके परिवर्तन तथा गति की अक्षुण्ण चारा निरन्तर बह रही है। इनमें सादृश्य, आनन्तर्य और नैरन्तर्य तो है, किन्तु ए कारण कार्य भाव का भी खण्डन किया है। एकत्व द्रव्यत्व और नित्यत्त्व नहीं है।
धूमने वार विज्ञानों और सम्वेदनों के अजस्त्र हाम के अनुसार, विज्ञानों तो होता है, किन्तु प्रवाह में इन पृथक्-पृथक् विज्ञानों और सम्वेदनों में आनन्तर्य सम्बन्ध का अनुभव तो इस आनन्तर्य की अनिवार्यता का अनुभव नहीं होता। पूर्व विज्ञान और उत्तर-विज्ञान में पूर्वापर या आनन्तर्य सम्बन्ध तो है क्योंकि प्रथम विज्ञान द्वितीय विज्ञान का पूर्ववृत्ति है, किन्तु इस पूर्ववृत्तित्त्व नियतत्त्व का ज्ञान हमें नहीं होता, अतः इनमें कारण-कार्य-सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। बौद्ध दर्शन इस बात में ह्यूम दर्शन से श्रेष्ठ है, क्योंकि यह कारण कार्य सम्बन्ध को मानता है।
कोई भी बौद्ध मत प्रतीत्यसमुत्पाद् को स्वीकार किए बिना बौद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यह बुद्ध प्रतिपादित केन्द्रीय सिद्धान्त है। सर्वास्तिवाद ने भले ही कारण-कार्य-श्रृंखला के अंगों को क्षणिक धर्मों के स्तर प्रज्ञा को भी स्वीकार करता है क्योंकि इसके बिना निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता।
पर उतार दिया है, तथापि कारण एवं कार्य क्षणों में वह अनिवार्य सम्बन्ध स्वीकार करता है तथा कारण-क्षण में कार्य क्षण को उत्पन्न करने की शक्ति का प्रतिपादन करता है। झूम के समान वह को सीमित नहीं करता। वह काष्ट इन्द्रियानुभववादी नहीं है। क्योंकि यह ज्ञान का इन्द्रिय प्रत्यक्ष तक हो सात के समान, बुद्धि- विकल्पों की अनिवार्यता स्वीकार करता है। वह समाधि में प्रकाशित निर्विकल्प
खेल सिद्धांत: परिभाषा, अवधारणा, प्रकार, उदाहरण एवं बंदी की दुविधा
खेल सिद्धांत पारस्परिक निर्भरता से सम्बंधित स्थितियों में लोगों के तर्कसंगत व्यवहार का अध्ययन है। यह सिद्धांत तर्कसंगत व्यवहार करने वाले लोगों के समूह की बातचीत के विश्लेषण करने का एक औपचारिक तरीका है।
खेल सिद्धांत की अवधारणा (concept of game theory in hindi)
खेल सिद्धांत इस अवधारणा पर काम करता है कि एक तर्कसंगत व्यक्ति अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए फैसले लेता है। पारस्परिक निर्भरता से मतलब है की एक व्यक्ति दुसरे लोगों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर फैसले लेता है।
अतः एक व्यक्ति को यदि कोई फैसला लेना है तो उससे यह जानना होगा की लोगों का उस पर क्या फर्क पड़ेगा एवं वे कैसे प्रतिक्रिया देंगे।
खेल सिद्धांत के प्रयोग (uses of game theory in hindi)
खेल सिद्धांत का निम्न क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है :
- मूल्य निर्धारण
- उत्पादन के निर्णय में
- उत्पाद के विकास में
- उत्पाद के प्रचार में
खेल सिद्धांत के कुछ उदाहरण (examples of game theory in hindi)
- खरीददार एवं विक्रेता के बीच मोलभाव
- फर्म और उसके प्रतिस्पर्धी
- नीलामी
- बंदी की दुविधा(Prisoner’s Dilemma)
खेल सिद्धांत विश्लेषण (game theory in economics in hindi)
खले सिद्धांत में दो व्यक्तियों के व्यवहार का विश्लेषण गैर शून्यः खेल से किया जाता है जिसे बंदी की दुविधा भी कहा जाता है। यह मेरिल फ्लड और मेल्विन ड्रेशर द्वारा 1950 में तैयार किया गया था।
इसके अंतर्गत एक आपराधिक गिरोह के दो सदस्यों को गिरफ्तार किया जाता है और जेल में डाल दिया जाता है। प्रत्येक कैदी एकांत कारावास में है, जिसमें दूसरे के साथ संवाद करने का कोई साधन नहीं है। अभियोजकों के पास मुख्य आरोप प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता में जोड़े को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। उन्हें कम इल्जाम पर दोनों को एक साल की जेल की सजा मिलने की उम्मीद है। इसके साथ ही, अभियोजक प्रत्येक कैदी को सौदेबाजी का प्रस्ताव देते हैं। प्रत्येक कैदी को अवसर दिया जाता है की या तो वह दुसरे कैदी को धोका देकर उसको दोषी ठहराए , या फिर चुप रहकर दूसरे का सहयोग करें।
- यदि A और B प्रत्येक के साथ विश्वासघात करते हैं, तो उनमें से प्रत्येक को दो वर्ष जेल में काटने होंगे।
- यदि A, B को धोखा देता है, लेकिन B चुप रहता है, तो A मुक्त हो जाएगा, और B तीन वर्ष जेल में रहेगा (और इसके विपरीत)
- यदि A और B दोनों चुप रहते हैं, तो दोनों को केवल एक वर्ष की जेल (कम इल्जामों पर) होगी
खेल में दो खिलाड़ी “सहयोग” या “दोष” दोनों में से किसी एक का चयन कर सकते हैं। विचार यह है की यदि दोनों बंदी यदि एक दुसरे का सहयोग करते हैं तो दोनों को फायदा होगा, यदि एक सहयोग करता है तो धोखा देने वाले को ज्यादा फायदा होगा लेकिन यदि दोनों एक दुसरे को धोखा देते हैं तो दोनों को घाटा होगा।
इस तरह लोगों के व्यवहार का विश्लेषण किया जाता है एवं फैसले के हिसाब से दुसरे लोगों की प्रतिक्रिया जान ली जाती है। आगे के फैसले लोगों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर लिए जाते है।
इस लेख से सम्बंधित यदि प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता आपका कोई भी सवाल या सुझाव है, तो आप उसे नीचे कमेंट में लिख सकते हैं।
By विकास सिंह
विकास नें वाणिज्य में स्नातक किया है और उन्हें भाषा और खेल-कूद में काफी शौक है. दा इंडियन वायर के लिए विकास हिंदी व्याकरण एवं अन्य भाषाओं के बारे में लिख रहे हैं.
विकास के सिद्धांत | Principles of Development in Hindi
विकास के सिद्धांत (Principles of Development) को समझने से उपरांत यह समझना अति आवश्यक है, कि विकास क्या हैं? विकास के अर्थ को हम सामान्यतः एक बदलाव के प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता रूप में देखते हैं, अर्थात किसी भी स्थिति में जो एक चरण से दूसरे चरण में जाता हैं, अर्थात उसकी स्थिति में जो भी बदलाव आता है हम उसे विकास कहते हैं।
विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं, क्योंकि बदलाव दिन-प्रतिदिन आते हैं। विकास की कोई सीमा नही होती। विकास जन्म से मृत्यु तक निरंतर चलते रहता हैं। तो दोस्तों, आइए अब जानते है कि विकास के सिद्धांत (Principles of Development) क्या हैं?
विकास के सिद्धांत Principles of Development in Hindi
क्या आप जानते हैं कि सिद्धांत कहते किसे हैं? सिद्धान्त को प्रायः एक ऐतिहासिक धारणाओं एवं विचारों के रूप में स्वीकार किया जाता हैं। सिद्धांत एक मानक होता हैं। जिसके आधार पर किसी भी वस्तु की व्याख्या की जाती हैं। इसमें किसी निश्चित सिद्धांत के आधार पर ही किसी वस्तु को परिभाषित किया जाता हैं।
इसी तरह विकास के भी अपने कुछ मानक हैं, जिसके आधार पर चलकर विकास की व्याख्या की जाती हैं। इन्ही विकास के सिद्धांतो principles of development के अनुरूप हम विकास के अर्थ,कार्य,प्रक्रिया एवं सीमा का निर्धारण सुनिश्चित करते हैं। विकास के निम्न सिद्धांत हैं-
1) विकास की दिशा का सिद्धांत (Principle of development direction
2) निरंतर विकास का सिद्धांत (Principle of continuous development)
3) व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत (Principle of individual differences)
4) विकास क्रम का सिद्धांत (Theory of evolution)
5) परस्पर संबंध का सिद्धांत (Reciprocal principle)
6) समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of common pattern)
7) वंशानुक्रम सिद्धांत (Inheritance principle)
8) पर्यावरणीय सिद्धांत ( Environmental principles)
1- विकास की दिशा का सिद्धांत – इस सिद्धांत का यह मानना हैं कि बालकों के विकास सिर से पैर की तरफ होता हैं,मनोविज्ञान में इस सिद्धांत को सिरापुछिय दिशा कहा जाता हैं। जिसके अनुसार पहले बालको के सिर का उसके बाद उसके नींचे वाले अंगों का विकास होता हैं।
2- निरंतर विकास का सिद्धांत – यह सिद्धांत मानता हैं कि विकास अचानक नहीं होता बल्कि विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे पहले से ही चलते रहती हैं परंतु इसकी गति में बदलाव आते रहता हैं,अर्थात कभी विकास तीव्र गति से होता हैं तो कभी निम्न गति से।
3- व्यक्तिगत भिन्नता का विकास – इस सिद्धांत के अनुसार विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न तरीको से होता हैं। दो व्यक्तियों में एक समान विकास प्रक्रिया नहीं देखी जा सकती। जो व्यक्ति जन्म के समय लंबा होता है, तो वह आगे जाकर भी लंबा व्यक्ति ही बनेगा। एक ही उम्र के दो बालकों में शारीरिक,मानसिक एवं सामाजिक विकास में भिन्नताएँ स्प्ष्ट देखी जा सकती हैं।
4- विकास क्रम का सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास निश्चित क्रम के अनुसार ही होता हैं, अर्थात बालक बोलने से पूर्व अन्य व्यक्ति के इशारों को समझकर अपनी प्रतिक्रिया करता हैं। उदाहरण- बालक पहले स्मृति स्तर में सीखता हैं फिर बोध स्तर फिर अंत में क्रिया करके।
5- परस्पर संबंध का सिद्धांत – बालक के शारीरिक, मानसिक,संवेगात्मक पक्ष के विकास में एक प्रकार का संबंध होता हैं,अर्थात शारीरिक विकास के साथ-साथ उसके मानसिक विकास में भी वृद्धि होती हैं और जैसे-जैसे उसका मानसिक विकास होते रहता हैं वैसे-वैसे वह उस मानसिक विकास को क्रिया रूप में परिवर्तन करते रहता हैं।
6- समान प्रतिमान का सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास किसी विशेष जाति के आधार पर होता हैं। जैसे व्यक्ति या पशुओं का विकास अपनी-अपनी कुछ विशेषताओं के अनुसार होता हैं।
7- वंशानुक्रम सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास उसके वंश के अनुरूप होता हैं, अर्थात जो गुण बालक के पिता,दादा में होते है,वही गुण उनके शिशुओं को मिलते हैं। जैसे अगर उनके वंश में सभी की लंबाई ज्यादा होती हैं तो होने वाला बच्चा भी लंबा ही प्रत्येक सिद्धांत की विशेषता होता हैं।
8- पर्यावरणीय सिद्धांत – यह सिद्धांत वंशानुक्रम सिद्धांत के अनुरूप हैं। यह मानता हैं कि व्यक्ति का विकास उसके आस-पास के वातावरण पर निर्भर करता हैं, अर्थात पर्यावरण जिस प्रकार का होगा व्यक्ति का विकास भी उसी दिशा की ओर होगा।
तो दोस्तों, आज आपने जाना कि विकास के सिद्धांत (Principles of Development in Hindi) क्या-क्या हैं। अगर आपको हमारा यह लेख पसंद आया हो तो इसे अपने मित्रों के साथ भी अवश्य शेयर करें। अन्य किसी प्रकरण में जानकारी पाने हेतु हमारी सभी पोस्टों को ध्यानपूर्वक पढ़े।
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